डाकघर






ज़िंदगी आजकल डाकघर सी हो गई है।
दूसरों के ज़ज़्बात,
ख़त की तरह,
पड़े रहते हैं, यहाँ।
कुछ देर।
उन सबका एक पता है।
ये तो,
मेरे मन को भी पता है।
कुछ डाकबाबू आते हैं,
ज़िंदगी में।
उनका तो काम ही है।
दिए गए पते पर चिठ्ठियाँ पहुँचाना।
कभी कभी लगता है,
दस्तूर ही बदल जाएं।
पहले ख़त पढे जाएंगे,
फिर भेजे जाएंगे।
कितना आनंद आएगा ना !
दूसरों की भावनाएं, राज़, समस्याएं,
उनके ज़िंदगी की उलझनें,
उनकी सुराग़-ए-ज़िंदगी,
ख़त में छिपी माँ की ममता,
पिता की फटकार,
दादा दादी का पोते के लिए प्यार।
क्युँ ना पढ़ लिया जाएं।
लेकिन उस विश्वास का क्या ?
जो उनके मन में मेरे प्रति है।
यह तो विश्वासघात हुआ।
जैसे किसी ने खामोश दरियां में एक कंकड़ फेंक दिया हो।
छोटी ही सही, लहर तो उठेगी।
अविश्वास की।
नहीं नहीं, ये ठीक नहीं।
जैसा है वैसा ही चलने दो।
बहाव पर बांध बनाना ठीक नहीं।
कदापि नहीं।
कुछ मुस्कानों को ओठों के पिछे ही रहने दो।
और आसुओं को दर्द से पहले ना बहने दो।
अब जब डाकघर बन ही गई है ज़िंदगी,
तो पतों को ख़तों की राह तकने दो,
और फ़िर एक दफ़ा ज़ज्बातों का मौसम,
मेरे मन से गुज़रने दो...
~नीरज

Comments

Popular Posts